कसक जो बन गई सफलता की प्रेरणा

चपरासी होना अभिशाप है? जज साहब बालमन में यह गहरी टीस थी कि क्यों मेरे पिता जज साहब की जी-हजूरी में दिनभर हाजिरी भरते हैं। हमारे सर्वैट क्वार्टर में गरीबी का डेरा क्यों है? जज साहब के घर आने-जाने वाली वीआईपी बिरादरी की रौनक क्यों रहती है? क्या चपरासी होना अभिशाप है? जज साहब की ठसक, रुतबा और समृद्धि ने बच्ची के मन में यह निष्कर्ष दिया कि जज होना बहत बड़ी बात है। उसने संकल्प लिया कि चाहे कुछ भी हो जाये, मैं जज बनूंगी। तमाम मुश्किलों, दुश्वारियों तथा भाग्य के खेलों के बावजूद उसके अवचेतन में यह विचार चस्पा हो गया कि मैं भी जज बनूंगी। आज बुलंद इरादों व संकल्प की जीत हुई। आखिर बिहार की बिटिया जज बन गई है। आज अर्चना 2018 में संपन्न हुई 30वीं बिहार न्यायिक सेवा परीक्षा में कामयाब हुई है। ओबीसी श्रेणी में उसका दसवां रैंक है और सामान्य श्रेणी में 227वां स्थान। निश्चय ही यह उसके संकल्प व परिश्रम की जीत है। तमाम विषम परिस्थितियों में भी उसने अपने हौसले को डिगने नहीं दिया। आज उसके घर में खुशियों का बसेरा है। कभी गरीबी का डेरा था। मां इतनी खुश, कहती है- भख मर गई। बेहद गरीबी से निकला परिवार इस सफलता को गर्व और विनम्रता से स्वीकार कर रहा है। कल तक ताने देने वाले आज बधाई दे रहे हैं। गांव वाले अब अर्चना को जज बिटिया कहकर पकार गौरवान्वित हो रहे हैं। बचपन की मुराद पूरी होने से अर्चना तो बेहद उत्साहित है कि अब न्याय कर सकेगी। बिहार की राजधानी पटना के गांव मानिक बिवाहा गांव के गौरीनंदन प्रसाद की बिटिया ने जिस घर में आंख खोली, हालत खस्ताउसे अहसास था कि चार भाई-बहनों में वहां जीवन के संघर्ष बड़े थे। बड़ा परिवार और माली हालत खस्ता। उसे अहसास था कि चार भाई-बहनों में बड़ी होने का मतलब जिम्मेदारी है। जैसे-तैसे गुजारा चलता था। विडंबना यह कि उसे अस्थमा रोग ने जकड लिया। अर्चना के पिता सोनपुर कोर्ट में में चपरासी के पद पर थे। पिता जज साहब की आलीशान कोठी के सामने बने सर्वैट क्वार्टर में रहते थे। उसे यह बात कचोटती थी कि पापा भी इनसान हैं, सरकारी नौकर भी हैं, फिर क्यों दिनभर जज साहब के आगे-पीछे घूमते रहते हैं। आखिर वह कौन-सी वजह है कि पापा की प्रतिष्ठा नहीं है। जज साहब को इतना सम्मान क्यों मिलता है। उसके मन में आखिरकार यह भावना घर कर गई कि जज बनकर ही हमारे सपने साकार हो सकते हैं। फिर उसने संकल्प लिया कि कुछ भी हो जाए, जज ही बनूंगी। तमाम झंझावातों से गुजरता अर्चना का जीवन मुश्किलों की सेज था। गरीबी और ऊपर से अस्थमा की मार। पटना के राजकीय कन्या उच्च विद्यालय से बारहवीं उत्तीर्ण की। फिर पटना विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में ऑनर्स किया। इसी बीच पढ़ाई के दौरान वज्रपात हुआऔर पिता चल बसे। घर में और भाई-बहन भी थे, आगे पढना मुश्किल था। उसने परिवार का बोझ हल्का करने के लिए कंप्यूटर सीखा और कुछ पैसे कमाने लगी। फिर परिवार का दबाव शादी करने के लिए पड़ा। उसे लगा कि मेरा जज बनने का सपना टूट जाएगा। आगे की पढाई अब न कर सकंगी। लेकिन इसके बावजूद अर्चना ने हिम्मत नहीं हारी। उसे लगा कि छह साल में जो बनने का सपना देखा था, वह अब शायद ही पूरा हो। वर्ष 2006 में शादी के बाद वह निराश थी। मगर अच्छा यह हुआ कि पति उसके सपनों को साकार करने आगे आये। पिता के दायित्वों को पति ने निभाया। उसने 2008 में पुणे यूनिवर्सिटी में एलएलबी में दाखिला लिया। वह बिहार से पहली बार बाहर निकली थी। उसकी सबसे बड़ी समस्या थी कि पढ़ाई अंग्रेजी में थी। लोगों ने उसका मजाक बनायालेकिन आखिरकार संकल्पों की जीत हुई। कानून की पढ़ाई पूरी करके लौटी तो पता चला वह मां बनने की प्रक्रिया में है। फिर परिवार की जिम्मेदारी के साथ बच्चा भी पालना था। उसने हिम्मत नहीं हारी, अपने पांच माह के बच्चे को अपनी मां के साथ दिल्ली आगे की पढ़ाई करने के लिए आई। उसकी हिम्मत देखिये कि उसने एलएलएम की पढ़ाई के साथ ही प्रतियोगी परीक्षा की भी तैयारी की। साथ ही अपना खर्च निकालने के लिए कानन के छात्रों को भी पढाया। इस यात्रा में साथ देने के लिए अर्चना पटना मेडिकल कॉलेज में एनाटॉमी विभाग में काम करने वाले पति राजीव रंजन का भी आभार व्यक्त करती है। उसका मानना है कि यदि पति मेरा साथ न देते तो मेरा सपना मर जाता। उन्होंने आगे की पढ़ाई में सहयोग किया और घर के काम में हाथ बंटाया। लेकिन अर्चना को इस बात का मलाल हमेशा रहेगा कि वह जज बनने की खशी पिता से साझा नहीं कर पायी। वे उसके साथ जज की कोठी में नहीं रह पाये। बहरहाल, वे जहां भी होंगे, बेटी की कामयाबी से खुश जरूर होंगे। आज उसके गांव वाले भी खुश हैं। उसे 'जज बिटिया' कहकर बुलाते हैं। अर्चना की बेमिसाल कामयाबी उन तमाम लड़कियों के लिए प्रेरणापुंज है, जो विषम हालात में भी अपने सपने पूरा करना चाहती हैं। निसंदेह लक्ष्य के प्रति समर्पण कामयाबी सुनिश्चित कर देता है।